बुधवार, 26 अगस्त 2015

कचोट

हाँ , आज आनंद को मुझसे  बिछड़े हुए पूरे बारह बरस हो गए हैं।  बारहवीं बरसी एक बार फिर मुझे आनंद का दुःख याद दिला रही है।  अपनी आख़री मुलाक़ात में आनंद ने इस तरह भाव विभोर हो वह घटना सुनाई थी की आज भी आँखों के सामने किसी चलचित्र सी घूम जाती है।  उसने बताया था - सर्दियों की घुप्प अंधेरी रात और रातों की ही तरह लेकिन न जाने क्यों बड़ी ही बेरहम और खौफनाक लग रही थी।  जाने क्या होने वाला है ? क्यों ये रात इतनी शांत और नीरव् लग रही थी थी।  जाने क्या होने वाला है ? चाँद  तो नही था आसमान में, लेकिन बादल था और रह - रहकर बिजली ऐसे कड़क रही थी की अभी ज़मीन का सीना फाड़कर ऐसे समा जाएगी और रह जाएगा एक सूनापन और सोचने के लिए भी न बचेगा की कोई कि यहां पर कुछ था भी।  एक शांत शून्य और ऐसा ही कुछ रह जाएगा।  न रहेगी ममता माँ की , दुलार बाप  का , स्नेह भाई का और बच्चों का प्यार और दोस्तों का छणिक प्रेम।  आत्मिक भी हो सकता है लेकिन आज के माहौल में शायद ही कोई ऐसा हो जो निस्वार्थ किसी को अपना बना सके।  कहकर आनंद थोड़ा रुका था और फिर काली काफी के दो घूँट ले फिर शुरू हो गया था।

खैर रात पल -पल बढ़ रही थी।  उसे तो बढ़ना ही था बस.. बढ़ना।  बढ़ना उसकी नायटी थी या मज़बूरी यह तय करना मुस्किल है क्योंकि समय चक्र तो लगातार घूमता ही रहता है।  किसी के लिए नही रुकता किसी के लिए भी।  चाहे राजा हो या भिखारी , चोर हो या साहूकार , वह किसी के लिए नही रुकता।  सो रात धीरे धीरे अपने चरम पर चढ़ रही थी।  मैं भी कहाँ मानने वाला था या कहूँ डरने वाला था सर्द रात की हवाओं के थपेड़ों  से रात की भयानकता से कड़कड़ाती बिजली की चमक से या फिर अकस्मात ही फैट पड़ने वाले बादल से , मुझे तो बस निकलना था भ्रमण।   जैसे मैं राज़ निकलता था उस दिन भी निकला लेकिन अकेले नही रज़ाना की ही तरह अपने मित्र बादल के साथ।  यह मेरा रोशन का नियम था।  लगभग दो  गया था यह नियम।  कैसे - इसके बारे में ठीक ठीक कहना या बताना संभव नही हो सकेगा।  थोड़ा रूककर आनंद ने एक सिप में ही खाली कर दिया और कड़वी यादों सा मुह बनाकर कहने लगा था।  

दिन भर की भाग दौड़ शाम घर के काम - काज यही तो वक्त था मेरा बादल से मिलने का और इस समय हमें मिलने से कोई रोक  नही सकता था , भयानक काली रात भी नही।  बस हम निकले सैर करने कदम दर कदम भयानक होती रात से बेपरवाह , बिना किसी मंज़िल के , आगे बढ़ते ही जा रहे  थे।  दूर से  बूढ़े को मूंगफली का ठेला लेकर आते हुए देखते ही मन में एक -एक करके न जाने कितने सवाल आन खड़े हुए।  जैसे क्या इस बूढ़े के घर में कोई और नही होगा , अगर नही होगा तो इसकी देखभाल करता होगा ? या फिर ये बूढा इतना ज़िद्दी या स्वाभिमानी है की किसी के ऊपर निर्भर रहना ही न चाहता हो वगैरह वगैरह।  इस तरह के अनेक सवाल मन में आये और चले गए।  इसी बीच बूढ़ा ठेला लेकर हमारे पास आ पहुंचा।  हमेशा की तरह आज भी चाचा कहकर रोका  _ _ _  और चाचा क्या बात है ? आज बड़ी जल्दी वापस जा रहे हो ? हाँ बेटू     बूढ़ा भी न जाने किस अधिकार से बेटू कहने लगा था लेकिन हमें उसका बेटू कहना बड़ा ही अच्छा लगने लगा था हालांकि शुरू - शुरू में जब पहली बार उसने हमें बेटू कहा था तब ज़रूर अटपटा लगा था हमें लेकिन अब हमें उसके मुह से बेटू सुनना बड़ा ही अच्छा लगने लगा था।  आज मौसम भी ज्यादा खराब हो रहा है और हमारी तबियत भी गड़बड़ लग रही है इसी खातिर हम जल्दी चल दिए हैं।  ये किस्मत की बात है की तुम हमें मिल बी गए हो तो बताओ आज कितनी मूंगफली लोगे।  वही रोज़ाना की तरह आज बी एक पाँव दे दो कहकर हमने जेब में हाथ डाला तो लेकिन ये क्या धत तेरे की चाचा आज तो हम पैसे घर ही भूल गए तो का हुआ तुम पैसा कड़े ही दो कहते हुए चाचा ने हमें एक पाँव मूगफली दे दी और और राम राम कहकर मूंगफली जेब में डालकर एक एक करके चबाते हुए हम फिर चल दिए गुनगुनाते हुए किसी राह में किसी मोड़ पर __ _ _ _ _ कहीं चल न देना तू छोड़कर मेरे हमसफ़र मेरे हमसफ़र      . . . . . . . . . 
बारह बरस पहले की  घटना आज भी मेरे सामने किसी चलचित्र सी जीवंत खड़ी है।  आज भी आनदंड की दर्द भरी आवाज़ और उसके गालो से ढलकती दो नन्ही सी बूंदे आज भी आत्मा को भिगो सा देती हैं।  कितना दर्द था उस दिन आनदंड की आवाज़ में  … और कितनी गहराई से निकला था उसका सुर हम सफर  …… मेरे हम सफर   …… जब वह सर झुकाकर बैठ गया और काफी समय तक कुछ न चोला तो मुझे ही कहना पड़ा अब आगे भी कह यार  .......... और यादों की पोटली समेटते हुए आनंद ने कहना शुरू किया  . .......

अभी हम कुछ ही कदम चले थे की बादल ने खा की अब हम स्टेशन की तरफ चलेंगे।  अमूमन हम स्टेशन की तरफ ही जाते थे दस भयानक स्याह काली रात और मन में कुछ बैचेनी सी भी थी सो हम नहर के किनारे की तरफ चल दिए और हम स्टेशन की तरफ बढ़ने लगे थे।  हवा का एक झोंका इस तरह से सिहरा गया की अब मानो कड़कड़ करती बिजली जमीन पर आकर ही दम  लेगी और इसी बीच बिजली भी गुल हो गई।  सामने से रेबड़ी वाला बोला बाबू जी रेबड़ी  ले लो  . रेबड़ी  नही भाई  अभी हम मूंगफली खा रहे हैं और बढ़ने का सिलसिला जारी रहा।  लेकिन इतनी सर्दी में सिर्फ एक फटी मैली कुचैली कमीज पहने किस तरह से ये रेबड़ी  वाला चला जा रहा है मानो उसे ठंड लग ही न रही हो।  लेकिन मज़बूरी भी तो हो सकती है।  खैर हमें क्या हम तो अपनी राह चले जा रहे थे।  रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर इधर से उधर चक्कर काट रहे थे।  जैसे ही हम नहर के पल की तरफ आगे बढे दस बचाओ बचाओ   …… अरे मर गया कोई तो बचाओ मेरा डैम निकला जा रहा है की आवाज़ कानो के  पर्दो को फाड़ती दिल की आख़री तह तक चीरने लगी।   शायद कोई किसी को लूट रहा है या कोई आदमी किसी जानवर के भय से चिल्ला रहा है अथवा न जाने क्यों किसी को शायद कोई शरारत सूझी हो और मज़े ले रहा है वगैरह  ……। वगैरह

अन्धेरा काफी होने के कारण अनुमान लगाना भी कठिन था की क्या हो सकता है और निशिचित तौर पर कहना मुश्किल  था की ये आवाज़ कहाँ से आए रही है।  पर मन काबू थोड़े ही होता है ? अंदर भी कोई मोम  सा बैठा ही होता है।  इसी मोम  वाले अस्तित्व ने अंदर की आंधी को हवा दी।  निश्चिंतता की जगह मन में तालाब में फेंके गए कंकड़ से उठी लहरों की तरह ही ख्याल आने जाने लगे।  फिर हम सीधे स्टेशन मास्टर के रूम की और गए और सारी दास्ताँ उसे बताई।  भला आदमी था वह यही ५०-५५ का रहा होगा क्योंकि इससे काम का कोई छोकरा शायद ही परोपकार की भावना न दिखाता और उस स्टेशन मास्टर ने तुरंत कॅबिन मैं से फोन पर स्थिति के बारे में पता कर पुलिस फ़ोर्स और अन्य दो आदमियो को स्ट्रेचर लेकर भेजा।  दरअसल हुआ यह था की कोई आदमी किसी ट्रैन की चपेट में आकर घायल हो गया था वही मदद के लिए चिल्ला रहा था।  हम भी चले की किसी की कुछ मदद हो सकेगी अ हम भी करेंगे।  चलो बादल मुझे भी उधर ही खींचने की सी स्थिति में बोले और पल भर पहले ही सामाजिकता का ढिंढोरा पीटने वाला मैं यह कहकर अपना पीछा छुड़ाकर भाग निकला की मैं यह सब नही देख सकता , मुझे खून देखते ही चक्कर आने लगते हैं।  बीमार हो जाता हूँ।

आज भी मैं उस घटना को याद करता हूँ तो मन में एक टीस सी उठती है की क्या हुआ होगा उस आदमी का जो ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था।  मेरा मन आज भी कचोटता है की जैसे कोई मेरा अपना उस दिन किसी मुसीबत में फसा था और मैं आत्मा की आवाज़ को कुचल पीछा छुड़ा भाग आया।  उस घटना की कचोट तो हमेशा सालती रहती है मुझे  ……………… और बरसों बाद मिला आनंद इतना कहकर फूट  -फूटकर रो पड़ा।  कई बार मुझे लगता है की पन्नो पर काले काले आखर नही बल्कि आनंद के सफ़ेद ओस से मोतियों की फसल से अंदर बाहर सराबोर मैं अपने अंदर आनंद को ढूंढता हूँ तो कभी आनंद को खुद में पाटा हूँ तो कभी खुद में आनंद को   ........................................ 











शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

आँसू

आंसू जो झरते हैं आखों से ,
निकालते हैं गुबार , मन का
शायद आंसू होते हैं ,
 दिल की ज़ुबान।
ग़म या खुशी , कैसे भी हों आसूं
बिन बुलाये आते हैं आखों में ,
क्या आसुओं की जुबां होती है ,
हाँ , वो कहते हैं अपनी बात ,
और सुनते हैं खुद ही ,
कोई सहारा नहीं है उनका ,
कोई नहीं संवारता उनकी ज़िंदगी ,
खुद ही पैदा होते हैं ,
और सूख जाते हैं खुद ही ,
जैसे मौत तो नाम से ही बदनाम है ,
पर तकलीफ तो हमेशा ज़िंदगी ही देती  है
वैसे ही आंसू तो प्रतीक हैं ग़म का ,
पर हंसी क्या हर बार खुशी देती है।
अपवाद यही कि हंसी कभी ग़म का साथ देती है
और आंसू खुशी में भी शामिल होते हैं